एक समय था जब भारत में पढ़े लिखे लोग भी मानसिक बिमारियों पर खुल कर बात करने से कतराते थे. लेकिन आज मानसिक स्वास्थ्य और इसके प्रति जागरूकता ने लोगो के घर से समाज की ओर रुख किया है. हाल ही के दिनों में कुछ प्रसिद्ध लोगो ने भी बाहर आकर स्वीकार किया है कि उन्हें मानसिक समस्याओं जैसे डिप्रेशन, बाइपोलर डिसऑर्डर, ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर का सामना करना पड़ा जिससे आम लोगो में भी कुछ हद तक अपनी मानसिक तकलीफों को दुसरो के साथ साझा करने की हिम्मत बड़ी है. हालाकिं यह संख्या अब भी बहुत कम है. आज भी ज्यादातर लोग घुट घुटकर तकलीफों का सामना करते है लेकिन शर्म और पागल कहलाये जाने के डर के कारण इलाज कराने से डरते है.
इसका अंदाजा भारत में डिप्रेशन और आत्महत्याऔ की संख्याओ से लगाया जा सकता है. यह आकडे बेहद चोकने वाले है जिसमे सुधार होना काफी जरुरी है.
Shocking Facts About Depression In India – भारत में डिप्रेशन और आत्महत्याऔ से जुड़े आकडे
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 56 मिलियन से अधिक भारतीय – यानि भारत की आबादी का 4.5 प्रतिशत हिस्सा – अवसाद से पीड़ित है, इसके बाद चीन जहां की आबादी का 4.2 प्रतिशत यानी 54 मिलियन लोग -इस विकार से पीड़ित है।
अक्टूबर 2016 में, बेंगलुरु के National Institute of Mental Health and Neurosciences (NIMHANS) ने एक मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण जारी किया जिसके अनुसार हर 5 में से एक व्यक्ति आज डिप्रेशन का शिकार है.
ASSOCHAM की एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के 42.5 प्रतिशत corporate employees आज तनाव और डिप्रेशन का सामना कर रहे है.
भारत में मानसिक स्वास्थ्य पर कुल स्वास्थ्य बजट का 0.06% हिस्सा खर्च किया जाता है।
हर साल लगभग दुनियां भर में 800,000 लोग आत्महत्या करते हैं, इनमें से 135,000 (17%) भारत के निवासी हैं,
लांसेट में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक 2010 में भारत में 187,000 आत्महत्या की गई जबकि भारत सरकार के आधिकारिक आंकड़ों में उसी वर्ष यह संख्या 134,600 बताई गई.
2012 में, तमिलनाडु (12.5%), महाराष्ट्र (11.9%) और पश्चिम बंगाल (11.0%) का आत्महत्या के मामले में उच्चतम अनुपात था
भारत में 2012 में 15-29 और 30-44 आयु के लोगो में लगभग 46,000 आत्महत्याएं हुईं . यह सभी आत्महत्याओं का लगभग 34% है.
WHO के अनुसार भारत में 15 से 29 वर्ष के बच्चों में मृत्यु का दूसरा सबसे प्रमुख कारण सुसाइड है,
लगभग 50% मानसिक, व्यवहारिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं की शुरुआत किशोरावस्था के दौरान होती है।
दिसंबर 2015 तक भारत में सिर्फ 3,800 मनोचिकित्सक और 898 मनोवैज्ञानिक की संख्या थी.
हमारे देश में केवल 43 सरकारी हॉस्पिटल मानसिक स्वास्थ्य पर काम करते है.
दोस्तों हम सभी के लिए यह बात जानना और अपने दोस्तों और परिवार वालो को बताना जरुरी है की जिस तरह शारीरिक समस्याएँ हमारी जिन्दगी का हिस्सा है उसी तरह मानसिक और व्यवहारिक समस्याएँ भी. एक खुशहाल जिन्दगी जीने के लिए दोनों को जड़ से मिटाना जरुरी है. इसलिए अकेले सामना करने की बजाय फैमिली या दोस्तों के साथ प्रॉब्लम शेयर करें और जहाँ जरुरत हो वहां इलाज करवाएं.
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ये आंकड़े काफी अफसोसनाक हैं हमें इस पर संजीदगी के साथ गौर करनी चाहिए